( चुभती बात -- मनोज कुमार द्विवेदी)
अनूपपुर(अंचलधारा) क्या अनूपपुर जिला जनप्रतिनिधियों की आपसी सिर फुट्टॊवल ,कलह, व्यक्तिगत अहंकार , इनकी नासमझी का शिकार हो कर रह गया है ? क्या जिले में अधिकारियों को उनकी उर्जा , उनकी रचनात्मकता के अनुरुप कार्य करने की छूट नहीं मिली ? जिले की अपूर्णता शायद इन आशंकाओं की पुष्टि करते हैं।
अनूपपुर जिला गठन 15 अगस्त 2003 मे हुआ। तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कद्दावर मंत्री बिसाहूलाल सिंह के नेतृत्व मे जिला बना। उनके कट्टर समर्थक आज भी उन्हे जिला निर्माता की एकमेव पदवी देते हैं।
किसी वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे जिले के अब तक के सभी कलेक्टरॊ के नाम , जिले मे उनके - जिले के तमाम जनप्रतिनिधियों के योगदान पर मेरी राय जानने की कोशिश की। सच कहें तो 2003 मे जिला गठन के बाद लगभग 14 कलेक्टर जिले मे आए तथा चले गये। लेकिन 17 वर्षों मे 14 कलेक्टरों की जिले मे नियुक्ति उनके अल्प कार्यकाल को दर्शाती है। इससे यह भी साबित होता है कि 17 वर्षों मे किस तरह से ताश के पत्तों की तरह कलेक्टर फेंटे गये।
मेरा स्वतंत्र रुप से यह मानना है कि किसी आई ए एस / आई पी एस को , यदि उनके विरुद्ध कोई गंभीर शिकायत ना हो तो , जिले मे कम से कम तीन साल कार्य करने का अवसर देना चाहिए। अलग अलग कारणों से सिर्फ के. के. खरे को छोडकर किसी भी आई ए एस या आई पी एस ने जिले मे तीन साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया। जब अधिकारी को पूरा समय ही नहीं मिला तो जबतक जिले को उनका लाभ मिल पाता ,जिले की जनता उन्हे - वे जिले को जान समझ पाते , उनका स्थानान्तरण कर दिया गया।
मनीष रस्तोगी, मनीष सिंह, डीके तिवारी, के के खरे,सुभाष जैन, कवीन्द्र कियावत,रजनी उईके, जे के जैन, नन्दकुमारम, नरेन्द्र सिंह परमार, अजय शर्मा,आलोक सिंह, अजय शर्मा, अनुग्रह पी ऒर अब चन्द्रमोहन ठाकुर मे से कितने कलेक्टरों के नाम जिले को याद हैं ?
दर असल कमजोर राजनैतिक इच्छा शक्ति, नेताओं का अहंकार, उनकी नासमझी, आपसी कलह, गुटबाजी के साथ प्रशासन - जनप्रतिनिधियों मे समन्वय ,आपसी समझ के आभाव के कारण अनूपपुर जिले को आज तक पिछडेपन से मुक्ति नहीं मिल पाई है। सांसद ,विधायक के रुप मे जाने पहचाने चेहरे आज भी जनता के सामने हैं ।
एक समय ऐसा था कि नगरपालिका , जिला पंचायत से लेकर विधानसभा,लोकसभा तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। यह एक ऐसा अवसर था जब जिला मुख्यालय सहित कोतमा, बिजुरी, पसान, जैतहरी, अमरकंटक को बनाया - संवारा जा सकता था। तब तथाकथित कद्दावर नेताओं में अहंकार की ऐसी जंग छिडी कि जिसका खामियाजा जिला आज भी भुगत रहा है। आज जिले में तीनों विधायक कांग्रेस के हैं लेकिन समन्वय में उत्तर - दक्षिण ध्रुव की तरह।
इस बीच कुछ अच्छे विचारशील कलेक्टर भी जिले मे आए। नेताओं की टांग खिंचाई, नासमझी ,सिर फुटॊवल मे वे भी उलझ कर रह गये। कुछ चतुर अधिकारी भी आए जो बिल्लियों की लडाई मे चतुर सुजान बनकर मक्खन खाते रहे। परिणाम आज भी जनता के सामने है।
जिला गठन के 17 साल हो गये। स्वीकृति के बावजूद फ्लाई ओवर ब्रिज का काम शुरु नहीं हो सका। व्यस्ततम रेलवे फाटक मे फंसी जनता नेताओं के सगे संबंधियों से मौखिक रिश्तेदारी जोडते कभी भी देखे - सुने जा सकते हैं। जिला अस्पताल भवन आज तक नहीं बना। रो -- धोकर एक या दो सडकें बन पाईं या बनने की कगार पर है। केन्द्रीय विद्यालय की स्वीकृति अभी मिली। न्यायालय भवन, कन्या महाविद्यालय आज तक नहीं बन सका। बिजुरी, कोतमा , अनूपपुर ,अमरकंटक आज भी चिकित्सकों की कमी से जूझ रहा है। अमरकंटक मे जारी भ्रष्टाचार पर मीडिया का गला सूख गया। ना किसी ने विधानसभा मे प्रश्न किया ना कमिश्नर - कलेक्टर ने जांच कराने की जहमत उठाई।
पत्रकारिता का हाल यह है कि जहाँ हाथ डालो एक ना एक सोशल मीडिया का ऒना - पॊना पत्रकार निकल आता है। जन सरोकारो से क्या अधिकारी, क्या नेता ,क्या पत्रकार किसी को कोई लेना देना नहीं । नवम्बर 2018 मे जनता ने कांग्रेस को तीनों विधानसभाएं दे दीं। हालात यह है कि तीनों विधायकों मे आपसी तालमेल की जबर्दस्त कमी है। कोई नगरपालिका मे झंडा फहराने, सी एम ओ को प्रभार दिलवाने की कवायद मे व्यस्त है तो कोई अपने ही छोटे कार्यकर्ताओं के बीच उलझ कर रह गया है। तो कोई मौका-मौका का गीत गाते हुए लाखों रुपये के स्वागत् -तोरण द्वार बनवाने, टैंकरों से पानी पीने - पिलाने मे व्यस्त है।
विपक्षी भाजपा का हाल तो ऒर भी बुरा है। सभी जगह निपटो -निपटाऒ की गैंगबाजी चल रही है। शायद जिले के लिये अब समय आ गया है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि गण स्वयं के मार्गदर्शन मे अधिकारियों को योजनाओं के क्रियान्वयन मे फ्री हैण्ड दें। इससे अधिकारी खुल कर कार्य कर पाएगें तो दूसरी ओर उनकी जिम्मेदारी भी तय होगी।
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