(हिमांशू बियानी/जिला ब्यूरो)
अनूपपुर (अंचलधारा) सनातन धर्म और संस्कृति में संस्कारवान व्यक्ति का ही महत्व है।संस्कार मानव के प्रेम को बांधता है।यह प्रेम भगवान से हो या किसी जीव से,अगर संस्कारों से युक्त है तभी टिक पाता है।विवाह संस्कार भी इसी पर आधारित होते हैं।
उक्त बातें अनूपपुर (मध्यप्रदेश) के अमरकंटक रोड स्थित कथा पंडाल में श्री राम कथा का गायन करते हुए द्वितीय दिन
पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज ने व्यासपीठ से कथा वाचन करते हुए कहीं।
सरस् श्रीराम कथा गायन के लिए लोक ख्याति प्राप्त प्रेममूर्ति पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज ने श्री राम सेवा समिति के पावन संकल्प से आयोजित नौ दिवसीय रामकथा गायन के क्रम भगवान शिव के विवाह की कथा गाते हुए कहा कि विवाह शब्द हिंदी में बाद में आया है। हमारी संस्कृति में इसे परिणय सूत्र बंधन कहा जाता है। एक ऐसा संस्कार जिससे पूरी सृष्टि चलती है।आज के आधुनिक समाज में इस परंपरा को लोग अपने-अपने प्रकार से जी रहे हैं।विधि विधान का लोप होता जा रहा है और तभी तो विवाह संस्कार टूटने की भी घटनाएं होती रहती हैं।
दुनिया में केवल सनातन धर्म ही तप करने की उचित प्रेरणा देता है। हमारे लगभग सभी सदग्रंथ यही बताते हैं की बिना तप के कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।हमारे संस्कृति या सिखाती है कि तप करने में ही सुख है,भोग में नहीं।मनुष्य की योनि तप करने के लिए ही है।जीव की बाकी की सभी योनियां भोग योनि कही जाती हैं।
पूज्य श्री ने कहा कि रामचरित मानस का लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य के अंदर श्रद्धा भाव सबसे आवश्यक है।मानस जी का प्रारंभ भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के प्रसंग से शुरू होता है। इसके पीछे भी यह सबसे बड़ा कारण है कि भगवान शिव विश्वास के प्रतीक हैं और माता पार्वती श्रद्धा की प्रतीक हैं।जिस मनुष्य में श्रद्धा और विश्वास का भाव उपस्थित होगा वही रामचरितमानस में गोता लगाकर भगवान का दर्शन प्राप्त कर सकेगा।
श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो कुछ भी प्राप्ति नहीं होती है।जैसे संशय स्वरूपा माता सती श्रीराम कथा सुनने गई लेकिन कथा उनके कान में नहीं उतरी।जिसकी जितनी श्रद्धा दृढ़ है उसको उतनी ही भागवत फल की प्राप्ति है।
पूज्यश्री के अनुसार श्रद्धा में अर्पण और समर्पण हो तो श्रद्धा अवश्य फल प्रदान करती है।हम जो करते हैं उस पर हमें ही विश्वास नहीं होता है तो फिर कैसे भगवान का दर्शन होगा।खटपट मिटे तो झटपट दर्शन होगा।लाख कोई समझाए भटकना नहीं है।जो इष्ट हैं उनमें केवट भैया और शबरी मैया की तरह से निष्ठ रहना है। सुग्रीव जी की तरह नहीं बनाना है।भगवान से मिलने के बाद भी संसार में लिपट कर भगवान को ही भूल गए।
पूज्य महाराज जी ने कहा कि हम जिस युग में जी रहे हैं वहां कोई भी मनुष्य विकारों से दूर नहीं रह पाता है। कामनाओं के मैल मन में तरह-तरह के विकार पैदा करते रहते हैं और इससे मनुष्य का जीवन कष्टमय हो जाता है और अगर हम सहज रहना चाहते हैं,सहज जीना चाहते हैं तो हमारे पास इस कलियुग के मल को काटने और धोने का एकमात्र साधन है श्री राम कथा काम,क्रोध, लोभ,मद और मत्सर आदि विकार कलिमल कहे जाते हैं।इससे बचने का एकमात्र सहज साधन श्री राम कथा ही है।मानस जी में लिखा है इस कथा को जो सुनेगा, कहेगा और गाएगा वह सब प्रकार के सुखों को प्राप्त करते हुए अंत में प्रभु श्री राम के धाम को भी जा सकता है।
पूज्यश्री ने कहा कि जब मन पर कलिमल का प्रभाव हो तो चाह कर भी मनुष्य सत्कर्म के पथ पर आगे नहीं बढ़ पाता है।मनुष्य का मन और उसके बुद्धि उसके अपने कर्मों के अधीन है। हम जो भी कर्म करते हैं उसे हमारा क्रियमाण बनता है। यही कर्म फल एकत्र होकर संचित कर्म होता है और फिर कई जन्मों के लिए यह प्रारूप प्रारब्ध के रूप में जीव के साथ जुड़ जाता है।सत्कर्मों से जिसने भी अपने प्रारब्ध को बेहतर बना रखा है, इस जन्म में भी सत्कर्मों में उसी की गति बन पाती है।अन्यथा बार-बार विचार करने के बाद भी हम उस पथ पर अपने को आगे नहीं ले जा पाते हैं।
पूज्य श्री ने कहा कि अगर हमारे घर में जीवित माता-पिता हैं तो वही हमारे भगवान हैं।माता-पिता की सेवा करके हम वह सब प्राप्त कर सकते हैं जो हम भगवान से चाहते हैं।श्री रामचरितमानस में यह बताया गया है की माता-पिता की आज्ञा मानने वाले, गुरु और अपने से बड़ों की आज्ञा मानने वाले सदा ही सुखी रहते हैं। लेकिन धरती पर तीन प्रकार के लोग होते हैं।एक तो अपने प्रारब्ध के कारण सब कुछ जानने के कारण उचित कार्य ही करते हैं, दूसरे वह है जो दूसरों के अच्छे कार्य को देखकर समझ के कार्य करते हैं और तीसरे वह हैं जो गलत करते हैं भुगतते हैं और तब उससे सीखते हैं।हमें तीसरा मार्ग अपनाने से बचना चाहिए।
महाराज जी ने कहा कि सत्य मार्ग पर चलकर धन अर्जित करने वाले लोग ही शाश्वत सुख की प्राप्ति कर पाते हैं।छल प्रपंच से धर्म तो अर्जित किया जा सकता है लेकिन उसे सुख की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है।अधर्म के पथ पर चलकर धन अर्जित करने वाले जीवन में कभी भी सुखी नहीं हो सकते हैं। दूसरों को वह दूर से सुखी तो दिखते हैं लेकिन वास्तव में वह सुखी होते नहीं है अगर उनके दिल का हाल जाना जाए तो पता चलता है कि उनके दुख की कोई सीमा नहीं है।
पूज्यश्री ने बताया कि मनुष्य के जीवन में पूजा पाठ भजन क्यों आवश्यक है आपने कहा कि जब मनुष्य धर्म कार्यों में पूजा पाठ में संलग्न हो जाता है तो उसके जीवन से भाई खासकर मृत्यु का भय बिल्कुल समाप्त हो जाता है क्योंकि तब वह धीरे-धीरे ईश्वर के निकट पहुंचने लगता है और जो व्यक्ति भगवान से संबंध स्थापित कर लेता है तो फिर उसे इस संसार की किसी भी चीज से दुख नहीं पहुंचता है।इसीलिए कहा गया है कि जो संत हैं वह दुख या सुख की स्थिति में संभव में ही रहते हैं किसी भी परिस्थिति में उनकी मन की स्थिति नहीं बदलती है।
भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के प्रसंग की चर्चा करते हुए पूज्य महाराज श्री ने कहा कि सनातन धर्म और संस्कृति में विवाह एक मर्यादा महोत्सव है। भगवान को केवल और केवल प्रेम ही प्यारा है बार-बार मानस जी में इसका इसकी चर्चा आई है।यह जरूरी नहीं है कि भगवान भी हम से प्रेम करें हमें भगवान से अवश्य प्रेम करना चाहिए अगर हम भगवान से प्रेम की अपेक्षा करते हैं तो यह व्यापार हो जाएगा लेनदेन का व्यापार।
भगवान से बदले में कुछ चाहना तो व्यापार ही है।महाराज श्री ने कई सुमधुर भजनों से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया।बड़ी संख्या में उपस्थित रामकथा के प्रेमी,भजनों का आनन्द लेते हुए झूमते नजर आए। इस आयोजन से जुड़ी समिति के सदस्यों ने व्यास पीठ का पूजन किया और भगवान की आरती उतारी।
उक्त बातें अनूपपुर (मध्यप्रदेश) के अमरकंटक रोड स्थित कथा पंडाल में श्री राम कथा का गायन करते हुए द्वितीय दिन
पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज ने व्यासपीठ से कथा वाचन करते हुए कहीं।
सरस् श्रीराम कथा गायन के लिए लोक ख्याति प्राप्त प्रेममूर्ति पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज ने श्री राम सेवा समिति के पावन संकल्प से आयोजित नौ दिवसीय रामकथा गायन के क्रम भगवान शिव के विवाह की कथा गाते हुए कहा कि विवाह शब्द हिंदी में बाद में आया है। हमारी संस्कृति में इसे परिणय सूत्र बंधन कहा जाता है। एक ऐसा संस्कार जिससे पूरी सृष्टि चलती है।आज के आधुनिक समाज में इस परंपरा को लोग अपने-अपने प्रकार से जी रहे हैं।विधि विधान का लोप होता जा रहा है और तभी तो विवाह संस्कार टूटने की भी घटनाएं होती रहती हैं।
दुनिया में केवल सनातन धर्म ही तप करने की उचित प्रेरणा देता है। हमारे लगभग सभी सदग्रंथ यही बताते हैं की बिना तप के कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।हमारे संस्कृति या सिखाती है कि तप करने में ही सुख है,भोग में नहीं।मनुष्य की योनि तप करने के लिए ही है।जीव की बाकी की सभी योनियां भोग योनि कही जाती हैं।
पूज्य श्री ने कहा कि रामचरित मानस का लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य के अंदर श्रद्धा भाव सबसे आवश्यक है।मानस जी का प्रारंभ भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के प्रसंग से शुरू होता है। इसके पीछे भी यह सबसे बड़ा कारण है कि भगवान शिव विश्वास के प्रतीक हैं और माता पार्वती श्रद्धा की प्रतीक हैं।जिस मनुष्य में श्रद्धा और विश्वास का भाव उपस्थित होगा वही रामचरितमानस में गोता लगाकर भगवान का दर्शन प्राप्त कर सकेगा।
श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो कुछ भी प्राप्ति नहीं होती है।जैसे संशय स्वरूपा माता सती श्रीराम कथा सुनने गई लेकिन कथा उनके कान में नहीं उतरी।जिसकी जितनी श्रद्धा दृढ़ है उसको उतनी ही भागवत फल की प्राप्ति है।
पूज्यश्री के अनुसार श्रद्धा में अर्पण और समर्पण हो तो श्रद्धा अवश्य फल प्रदान करती है।हम जो करते हैं उस पर हमें ही विश्वास नहीं होता है तो फिर कैसे भगवान का दर्शन होगा।खटपट मिटे तो झटपट दर्शन होगा।लाख कोई समझाए भटकना नहीं है।जो इष्ट हैं उनमें केवट भैया और शबरी मैया की तरह से निष्ठ रहना है। सुग्रीव जी की तरह नहीं बनाना है।भगवान से मिलने के बाद भी संसार में लिपट कर भगवान को ही भूल गए।
पूज्य महाराज जी ने कहा कि हम जिस युग में जी रहे हैं वहां कोई भी मनुष्य विकारों से दूर नहीं रह पाता है। कामनाओं के मैल मन में तरह-तरह के विकार पैदा करते रहते हैं और इससे मनुष्य का जीवन कष्टमय हो जाता है और अगर हम सहज रहना चाहते हैं,सहज जीना चाहते हैं तो हमारे पास इस कलियुग के मल को काटने और धोने का एकमात्र साधन है श्री राम कथा काम,क्रोध, लोभ,मद और मत्सर आदि विकार कलिमल कहे जाते हैं।इससे बचने का एकमात्र सहज साधन श्री राम कथा ही है।मानस जी में लिखा है इस कथा को जो सुनेगा, कहेगा और गाएगा वह सब प्रकार के सुखों को प्राप्त करते हुए अंत में प्रभु श्री राम के धाम को भी जा सकता है।
पूज्यश्री ने कहा कि जब मन पर कलिमल का प्रभाव हो तो चाह कर भी मनुष्य सत्कर्म के पथ पर आगे नहीं बढ़ पाता है।मनुष्य का मन और उसके बुद्धि उसके अपने कर्मों के अधीन है। हम जो भी कर्म करते हैं उसे हमारा क्रियमाण बनता है। यही कर्म फल एकत्र होकर संचित कर्म होता है और फिर कई जन्मों के लिए यह प्रारूप प्रारब्ध के रूप में जीव के साथ जुड़ जाता है।सत्कर्मों से जिसने भी अपने प्रारब्ध को बेहतर बना रखा है, इस जन्म में भी सत्कर्मों में उसी की गति बन पाती है।अन्यथा बार-बार विचार करने के बाद भी हम उस पथ पर अपने को आगे नहीं ले जा पाते हैं।
पूज्य श्री ने कहा कि अगर हमारे घर में जीवित माता-पिता हैं तो वही हमारे भगवान हैं।माता-पिता की सेवा करके हम वह सब प्राप्त कर सकते हैं जो हम भगवान से चाहते हैं।श्री रामचरितमानस में यह बताया गया है की माता-पिता की आज्ञा मानने वाले, गुरु और अपने से बड़ों की आज्ञा मानने वाले सदा ही सुखी रहते हैं। लेकिन धरती पर तीन प्रकार के लोग होते हैं।एक तो अपने प्रारब्ध के कारण सब कुछ जानने के कारण उचित कार्य ही करते हैं, दूसरे वह है जो दूसरों के अच्छे कार्य को देखकर समझ के कार्य करते हैं और तीसरे वह हैं जो गलत करते हैं भुगतते हैं और तब उससे सीखते हैं।हमें तीसरा मार्ग अपनाने से बचना चाहिए।
महाराज जी ने कहा कि सत्य मार्ग पर चलकर धन अर्जित करने वाले लोग ही शाश्वत सुख की प्राप्ति कर पाते हैं।छल प्रपंच से धर्म तो अर्जित किया जा सकता है लेकिन उसे सुख की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है।अधर्म के पथ पर चलकर धन अर्जित करने वाले जीवन में कभी भी सुखी नहीं हो सकते हैं। दूसरों को वह दूर से सुखी तो दिखते हैं लेकिन वास्तव में वह सुखी होते नहीं है अगर उनके दिल का हाल जाना जाए तो पता चलता है कि उनके दुख की कोई सीमा नहीं है।
पूज्यश्री ने बताया कि मनुष्य के जीवन में पूजा पाठ भजन क्यों आवश्यक है आपने कहा कि जब मनुष्य धर्म कार्यों में पूजा पाठ में संलग्न हो जाता है तो उसके जीवन से भाई खासकर मृत्यु का भय बिल्कुल समाप्त हो जाता है क्योंकि तब वह धीरे-धीरे ईश्वर के निकट पहुंचने लगता है और जो व्यक्ति भगवान से संबंध स्थापित कर लेता है तो फिर उसे इस संसार की किसी भी चीज से दुख नहीं पहुंचता है।इसीलिए कहा गया है कि जो संत हैं वह दुख या सुख की स्थिति में संभव में ही रहते हैं किसी भी परिस्थिति में उनकी मन की स्थिति नहीं बदलती है।
भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के प्रसंग की चर्चा करते हुए पूज्य महाराज श्री ने कहा कि सनातन धर्म और संस्कृति में विवाह एक मर्यादा महोत्सव है। भगवान को केवल और केवल प्रेम ही प्यारा है बार-बार मानस जी में इसका इसकी चर्चा आई है।यह जरूरी नहीं है कि भगवान भी हम से प्रेम करें हमें भगवान से अवश्य प्रेम करना चाहिए अगर हम भगवान से प्रेम की अपेक्षा करते हैं तो यह व्यापार हो जाएगा लेनदेन का व्यापार।
भगवान से बदले में कुछ चाहना तो व्यापार ही है।महाराज श्री ने कई सुमधुर भजनों से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया।बड़ी संख्या में उपस्थित रामकथा के प्रेमी,भजनों का आनन्द लेते हुए झूमते नजर आए। इस आयोजन से जुड़ी समिति के सदस्यों ने व्यास पीठ का पूजन किया और भगवान की आरती उतारी।
0 Comments