(मनोज कुमार द्विवेदी)
अनूपपुर (अंंचलधारा) लेखक एवं विचारक मनोज द्विवेदी ने कहा कि 25 जनवरी 2022 ,मंगलवार के दिन सुप्रीम कोर्ट में भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में वर्षों से चली आ रही दोषपूर्ण निर्वाचन प्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए गये हैं। चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्र सरकार और निर्वाचन आयोग से चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त बिजली, पानी, लैपटाप या ऐसी अन्य सुविधाओं के वायदे करने के विरुद्ध जवाब मांगा है।
इसे अत्यंत गंभीर मामला मानते हुए कहा है कि यह भ्रष्ट आचरण नहीं है लेकिन इससे चुनाव और मतदाता प्रभावित होते हैं और निष्पक्षता पर भी सवाल उठते हैं ।भाजपा नेता एवं अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने याचिका दायर करते हुए कहा है कि चुनाव में कई दल मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त बिजली, पानी , हर महीने नकद राशि, लैपटाप, स्कूटी आदि देने की घोषणा की है।जाहिर है कि जब निर्वाचन प्रक्रिया में प्रलोभन, दबाव या डर का प्रयोग होने लगे तो चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल खड़े होने लगते हैं।
चुनाव मे मतदाताओं को प्रलोभन एक तरह का रिश्वत नहीं है ?.... इस विषय में इससे पूर्व 2013 मे भी सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव के पहले मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त घोषणाओं को लेकर चिंता जताते हुए भारत निर्वाचन आयोग से गाइड लाईन बनाने को कहा था। विभिन्न राजनैतिक दलों की बैठक में सहमति ना बनने के कारण कुछ नहीं किया जा सका। तब 2015 में निर्वाचन आयोग ने यह आदेश दिया कि दलों को यह बतलाना होगा कि वे अपनी घोषणाओं को किन स्रोतों से पूरा करेगें ?
मतदाताओं को चुनाव में अपनी कल्याणकारी योजनाओं, कार्यों, विचारधारा से आकर्षित करने की जगह और दूसरे , विकास ,सुरक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती की जगह जब प्रत्याशी या राजनैतिक दल मतदाता को व्यक्तिगत प्रलोभन देने लगता है तो निष्पक्ष चुनाव को प्रभावित करने का गैर - वाजिब तरीका हो जाता है। इसके विरुद्ध कोई कड़ा प्रावधान ना होने के कारण अब यह मुफ्त बिजली, पानी, साड़ी, मोबाईल, टैबलेट, सायकिल, सिलाई मशीन, लैपटाप से होता हुआ प्रतिमाह एक निश्चित राशि देने के आफर तक आ पहुंचा है।
भारत जैसे बड़े देश में लोकतंत्र की मजबूती के लिये निर्वाचन प्रक्रिया को इसकी रीढ माना गया है। निर्वाचन प्रक्रिया निष्पक्ष, निर्भीक, स्वतंत्र हो ,यह सुनिश्चित करने के लिये भारत निर्वाचन आयोग को और भी अधिकार संपन्न बनाए जाने की अपेक्षा की जाती रही है। निर्वाचन प्रक्रिया निष्पक्ष हो इसके लिये जरुरी है कि मतदाताओं को डराया,धमकाया न जाए,प्रलोभन न दिया जाए । ऐसा प्रत्येक चुनाव मे प्रदर्शित किया जाता है ,जबकि वास्तविकता कुछ और है। शराब के ठेकों/ दुकानों में चुनावी महीनों मे जितनी शराब बिकती है ,वह एवरेज हर माह की तुलना मे कई गुना अधिक होती है। अब यह शराब मतदान दल , पार्टी कार्यकर्ता ही पी जाते हों...संभव नहीं। निश्चित रुप से मतदाताओं को बेशुमार शराब पिलाई जाती है। साडी,कंबल,पैसा भी बांटा जाता है। कभी कभार कुछ कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों द्वारा इसे जब्त भी किया जाता है । कहीं कुछ दिखावे की आंशिक कार्यवाही भी होती है। लेकिन इससे परे हट कर जरा ध्यान दें तो पाएगें कि राजनैतिक दल अब खुल कर मतदाताओं को लालच देने लगे हैं। यह सब चुनावी घोषणा पत्र के नाम पर होता है। घोषणा पत्र मतलब चुन कर आने पर आपकी आगामी पांच वर्ष की कार्य योजना। दलों के घोषणापत्र पर निर्वाचन आयोग का कितना नियंत्रण है यह इस बात से समझा जा सकता है कि घोषणाओं की पूर्ति चुनी हुई सरकार द्वारा कभी पूरी की भी जाती है या नहीं, यह देखने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। यह जनता के साथ सीधा-सीधा धोखाधडी का मामला है । जिस पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती।
पिछले कुछ वर्षों मे चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद राजनैतिक दलों द्वारा खुले आम मतदाताओं को प्रलोभन दिया जाता है। मसलन तुम मुझे / हमे वोट दो तो हम जीतने के बाद तुम्हे टीवी, लेपटाप,एन्ड्रायड फोन ,मुफ्त/ सस्ते अनाज,घी, जमीन ,घर देगें। तुम्हारी शादी की व्यवस्था कर देगें,बच्चों को उच्च शिक्षा के लिये विदेश भेज देगें। आज तक निर्वाचन आयोग यह तय नही कर सका है कि ऐसे प्रलोभन जो मतदाताओं को सीधे - सीधे प्रभावित करते हैं, इनके विरुद्ध क्या कार्यवाही की जाए ?जाति,धर्म,भाषा,धन - शक्ति को आधार पर टिकट बांटने की परम्परा तो आम हो चुकी है । इस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं। आम चुनाव मे जिस तरह से अग्यात स्रोतों से प्राप्त पैसों ( चुनावी चंदा) का उपयोग सभी राजनीतिक दल करते हैं, इस पर नियंत्रण के बिना भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की कल्पना भी अनैतिक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार से देश को बडी अपेक्षाएं हैं। नोटबंदी से भ्रष्टाचार समाप्त करने की उनकी कोशिश के साथ -- साथ जब तक निर्वाचन से जुड़ी इन बड़ी खामियों को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता।
अब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में यह विषय उठाया गया है और इस महत्वपूर्ण विषय पर सुनवाई जारी है। निश्चित रुप से लोकतंत्र में वायदों का प्रलोभन एक ऐसी समस्या है जिसके लिये नेता, दल और मतदाता तीनों बराबर के जिम्मेदार हैं । यदि मतदाता लैपटॉप, टैबलेट, मुफ्त बिजली, शराब, कंबल, साड़ी, पैसे के लालच में अपना वोट देता है ..तो यह मत दान नहीं...मत विक्रय है। तब चुनाव बाद पांच साल प्रत्याशी को भी इस इन्वेस्टमेंट का फल उगाहने, बटोरने का पूरा नैतिक / अनैतिक अधिकार मिल जाता है। चुनाव में यह प्रलोभन खुली रिश्वतखोरी है ,जिसके लिये दोनों पक्ष बराबर के जिम्मेदार हैं। ऐसा ही विषय चुनाव प्रचार का भी है। भारतीय लोकतंत्र में मंहगा चुनाव प्रचार भ्रष्टाचार की जननी है। चुनाव प्रचार में प्रत्याशी पहले लाखों , करोड़ों रुपये खर्च करता है, फिर पांच साल सूद सहित उसकी वसूली करता है। इन दोनों विषयों पर अब विचार करने और इसके विरुद्ध कदम उठाने की जरुरत है।
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