(हिमांशू बियानी/जिला ब्यूरो)
अनूपपुर (अंंचलधारा) प्रगतिशील लेखक संघ इकाई अनूपपुर की बैठक प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना के अवसर पर प्रलेस अनूपपुर के अध्यक्ष गिरीश पटेल के निवास पर संपन्न हुई।इस आयोजन में प्रलेस के स्थापना पर विचार विमर्श हुआ।
प्रलेस अध्यक्ष मण्डल के सदस्य और मीडिया प्रभारी आनंद पाण्डेय,सामाजिक कार्यकर्ता ललित दुबे,सचिव रामनारायण पाण्डेय,उपाध्यक्ष बालगंगाधर सेंगर,वरिष्ठ सदस्य रावेंद्रकुमार सिंह भदौरिया ने अपने अपने विचार प्रस्तुत किए और अंत में बैठक की अध्यक्षता कर रहे गिरीश पटेल ने भी अपने विचार विस्तार से प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 10 अप्रैल 1936 को की गई।पर इसके पहले भी साहित्य था और साहित्य से संबंधित संस्थाएँ भी थीं।फिर इसके स्थापना की आवश्यकता क्यों हुई...? यदि इतिहास का सिंहावलोकन किया जाए तो पता चलता है कि पहले साहित्य परी,राक्षस , प्रकृति,सुरा-सुन्दरी,सौन्दर्य बोध और ऐतिहासिक कथाओं के इर्द-गिर्द या फिर धार्मिक- सांप्रदायिक घटनाओं तथा कथाओं तक ही सीमित था और इसका कोई सांगठनिक ढाँचा प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होता था।
काफ़ी समय पश्चात् भक्ति काल के अन्तर्गत रैदास, मीरा,जायसी, दादू, अमीर खुसरो,कबीर, सूरदास, व तुलसीदास आदि ने जहां एक ओर भक्ति से परिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत कीं वहीं दूसरी ओर समाज को एक संदेश भी दिया।कबीर की रचनाएँ जहॉं यथार्थपरक थी वहीं उनमें व्यंग्य का पुट भी दिखाई देता है।इस तरह इसे भक्ति काल का आंदोलन भी कहा जा सकता है।शुरुआत का साहित्य प्राकृत,पाली ,अपभ्रंश व संस्कृत भाषाओं में रचा गया।फिर बाद में हिंदी की विभिन्न बोलियों यथा अवधी, बुंदेलखंडी, भोजपुरी,बघेली व छत्तीसगढ़ी में रचा गया जो कि अधिकांशतः पद्य में ही होता था।इसके अलावा भारत की विभिन्न भाषाओं में भी साहित्य संरचना होती रही।भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के आने के पश्चात् खड़ी बोली में भी साहित्य संरचना होने लगी।यह तो था भारत का हाल।
इसी तरह पूरे विश्व में वहाँ की स्थानीय भाषाओं में साहित्य सृजन होता रहा और अनुवाद भी।सन् 1930 के आसपास जब विश्व के कई देशों और भारत में भी तानाशाही अपने चरम पर थी और मार्क्स का अभ्युदय हो चुका था ऐसी स्थिति में साहित्य भी उससे प्रभावित हो रहा था।भारत की आज़ादी के आंदोलन ने भी साहित्य को प्रभावित किया तब लेखकों ने न केवल इस संबंध में साहित्य संरचना की बल्कि आंदोलन में हिस्सा भी लिया और इसे प्रायोगिक रूप में प्रदर्शित किया।जहां रूस में मेक्सिम गोर्की इसमें सक्रिय हुए वहाँ भारत में प्रेमचन्द, सज्जाद ज़हीर,मुल्कराज आनंद,कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी,अब्दुल हक़ सहित तमाम लेखकों ने यथार्थपरक व राजनीति के परिप्रेक्ष्य में अपने लेखन को केंद्रित किया तथा प्रगतिशील आंदोलन को हवा दी।प्रारंभ में तमाम लेखकों ने राजनैतिक यथार्थपरक साहित्य को साहित्य मानने से भी इंकार कर दिया और इसका विरोध करने लग गए।सन् 1930-1934 के बीच भारत मे 348 समाचारपत्र और तमाम पत्रिकाएँ बंद कर दी गईं।प्रेमचन्द और रवींद्रनाथ टैगोर सहित कई लेखकों की रचनाएँ प्रतिबंधित कर दी
गईं।कई लेखकों को जेल की हवा भी खानी पड़ी।ऐसे तानाशाही पूर्ण समय में प्रेमचन्द जैसे लेखकों का चिंतित होना स्वाभाविक था और वे इस जद्दोजहद में थे कि लेखकों का कोई ऐसा संगठन होना चाहिए जो मिलकर विपरीत परिस्थितियों का सामना कर सके। सन् 1935 में सज्जाद ज़हीर लंदन में अपनी पढ़ाई पूरी कर चुके थे तब उन्होंने मुल्कराज आनंद और कुछ लेखकों के साथ मिलकर वहॉं प्रगतिशील लेखक संघ का निर्माण किया।1936 में भारत आकर सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद ने प्रेमचन्द के साथ मिलकर चर्चा की और लखनऊ में 9-10 अप्रैल को एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें देश के विभिन्न प्रांतों से अनेक लेखकों ने शिरकत की जिसमें प्रेमचन्द ने इसकी अध्यक्षता की।पहला दिन प्रस्तावना व दूसरा दिन यानि 10 अप्रैल 1936 इसके गठन का दिवस हुआ।यह एक विचारणीय तथ्य है कि लखनऊ में उपस्थित रहते हुए भी रामविलास शर्मा और निराला जी इस सम्मेलन में नहीं
आए।जैनेन्द्र कुमार को ज़रूर प्रेमचन्द पकड़ ले गए पर बाद में इस संगठन को उनका कोई विशेष सहयोग नहीं मिल सका और तमाम साहित्यकारों ने इस संघ से दूरियॉं बनाए रखीं।बाद में एक सम्मेलन में पंडित नेहरू ने इसमें हिस्सा लिया तो इससे प्रभावित होकर बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग इससे जुड़ा और यह लेखक संघ मज़बूती से स्थापित हो गया और संचालित होता रहा परंतु आज़ादी के बाद एक समय ऐसा आया जब लगा कि यह लेखक संघ लगभग समाप्ति की ओर है तब हरिशंकर परसाई ने इसमें पुनः प्राण फूंके और इसकी प्रतिष्ठा को ऊँचाइयाँ प्रदान की।आज प्रलेस को स्थापित हुए 87 वर्ष हो चुके हैं।आज देश के हालात उसी तरह से हो गए हैं जब तानाशाही ने सिर उठा लिया है और कालचक्र की सुई घूमते हुए 1930-1934 के काल पर आकर अटक गई है।यह बहुत ख़तरनाक समय है जब काले अंग्रेजों ने देश के लोकतंत्र को तानाशाही के पदों तले रौंदना शुरू कर दिया है।
ऐसी विकट परिस्थितियों में प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन 20 से 22 अगस्त 2023 को जबलपुर में किया जा रहा है जो कि हरिशंकर परसाई को समर्पित होगा और इसे “ ठिठुरता हुआ गणतंत्र “ की संज्ञा दी गई है।अनूपपुर प्रगतिशील लेखक संघ इस राष्ट्रीय अधिवेशन को अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता है।
प्रलेस अध्यक्ष मण्डल के सदस्य और मीडिया प्रभारी आनंद पाण्डेय,सामाजिक कार्यकर्ता ललित दुबे,सचिव रामनारायण पाण्डेय,उपाध्यक्ष बालगंगाधर सेंगर,वरिष्ठ सदस्य रावेंद्रकुमार सिंह भदौरिया ने अपने अपने विचार प्रस्तुत किए और अंत में बैठक की अध्यक्षता कर रहे गिरीश पटेल ने भी अपने विचार विस्तार से प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 10 अप्रैल 1936 को की गई।पर इसके पहले भी साहित्य था और साहित्य से संबंधित संस्थाएँ भी थीं।फिर इसके स्थापना की आवश्यकता क्यों हुई...? यदि इतिहास का सिंहावलोकन किया जाए तो पता चलता है कि पहले साहित्य परी,राक्षस , प्रकृति,सुरा-सुन्दरी,सौन्दर्य बोध और ऐतिहासिक कथाओं के इर्द-गिर्द या फिर धार्मिक- सांप्रदायिक घटनाओं तथा कथाओं तक ही सीमित था और इसका कोई सांगठनिक ढाँचा प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होता था।
काफ़ी समय पश्चात् भक्ति काल के अन्तर्गत रैदास, मीरा,जायसी, दादू, अमीर खुसरो,कबीर, सूरदास, व तुलसीदास आदि ने जहां एक ओर भक्ति से परिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत कीं वहीं दूसरी ओर समाज को एक संदेश भी दिया।कबीर की रचनाएँ जहॉं यथार्थपरक थी वहीं उनमें व्यंग्य का पुट भी दिखाई देता है।इस तरह इसे भक्ति काल का आंदोलन भी कहा जा सकता है।शुरुआत का साहित्य प्राकृत,पाली ,अपभ्रंश व संस्कृत भाषाओं में रचा गया।फिर बाद में हिंदी की विभिन्न बोलियों यथा अवधी, बुंदेलखंडी, भोजपुरी,बघेली व छत्तीसगढ़ी में रचा गया जो कि अधिकांशतः पद्य में ही होता था।इसके अलावा भारत की विभिन्न भाषाओं में भी साहित्य संरचना होती रही।भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के आने के पश्चात् खड़ी बोली में भी साहित्य संरचना होने लगी।यह तो था भारत का हाल।
इसी तरह पूरे विश्व में वहाँ की स्थानीय भाषाओं में साहित्य सृजन होता रहा और अनुवाद भी।सन् 1930 के आसपास जब विश्व के कई देशों और भारत में भी तानाशाही अपने चरम पर थी और मार्क्स का अभ्युदय हो चुका था ऐसी स्थिति में साहित्य भी उससे प्रभावित हो रहा था।भारत की आज़ादी के आंदोलन ने भी साहित्य को प्रभावित किया तब लेखकों ने न केवल इस संबंध में साहित्य संरचना की बल्कि आंदोलन में हिस्सा भी लिया और इसे प्रायोगिक रूप में प्रदर्शित किया।जहां रूस में मेक्सिम गोर्की इसमें सक्रिय हुए वहाँ भारत में प्रेमचन्द, सज्जाद ज़हीर,मुल्कराज आनंद,कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी,अब्दुल हक़ सहित तमाम लेखकों ने यथार्थपरक व राजनीति के परिप्रेक्ष्य में अपने लेखन को केंद्रित किया तथा प्रगतिशील आंदोलन को हवा दी।प्रारंभ में तमाम लेखकों ने राजनैतिक यथार्थपरक साहित्य को साहित्य मानने से भी इंकार कर दिया और इसका विरोध करने लग गए।सन् 1930-1934 के बीच भारत मे 348 समाचारपत्र और तमाम पत्रिकाएँ बंद कर दी गईं।प्रेमचन्द और रवींद्रनाथ टैगोर सहित कई लेखकों की रचनाएँ प्रतिबंधित कर दी
गईं।कई लेखकों को जेल की हवा भी खानी पड़ी।ऐसे तानाशाही पूर्ण समय में प्रेमचन्द जैसे लेखकों का चिंतित होना स्वाभाविक था और वे इस जद्दोजहद में थे कि लेखकों का कोई ऐसा संगठन होना चाहिए जो मिलकर विपरीत परिस्थितियों का सामना कर सके। सन् 1935 में सज्जाद ज़हीर लंदन में अपनी पढ़ाई पूरी कर चुके थे तब उन्होंने मुल्कराज आनंद और कुछ लेखकों के साथ मिलकर वहॉं प्रगतिशील लेखक संघ का निर्माण किया।1936 में भारत आकर सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद ने प्रेमचन्द के साथ मिलकर चर्चा की और लखनऊ में 9-10 अप्रैल को एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें देश के विभिन्न प्रांतों से अनेक लेखकों ने शिरकत की जिसमें प्रेमचन्द ने इसकी अध्यक्षता की।पहला दिन प्रस्तावना व दूसरा दिन यानि 10 अप्रैल 1936 इसके गठन का दिवस हुआ।यह एक विचारणीय तथ्य है कि लखनऊ में उपस्थित रहते हुए भी रामविलास शर्मा और निराला जी इस सम्मेलन में नहीं
आए।जैनेन्द्र कुमार को ज़रूर प्रेमचन्द पकड़ ले गए पर बाद में इस संगठन को उनका कोई विशेष सहयोग नहीं मिल सका और तमाम साहित्यकारों ने इस संघ से दूरियॉं बनाए रखीं।बाद में एक सम्मेलन में पंडित नेहरू ने इसमें हिस्सा लिया तो इससे प्रभावित होकर बहुत बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग इससे जुड़ा और यह लेखक संघ मज़बूती से स्थापित हो गया और संचालित होता रहा परंतु आज़ादी के बाद एक समय ऐसा आया जब लगा कि यह लेखक संघ लगभग समाप्ति की ओर है तब हरिशंकर परसाई ने इसमें पुनः प्राण फूंके और इसकी प्रतिष्ठा को ऊँचाइयाँ प्रदान की।आज प्रलेस को स्थापित हुए 87 वर्ष हो चुके हैं।आज देश के हालात उसी तरह से हो गए हैं जब तानाशाही ने सिर उठा लिया है और कालचक्र की सुई घूमते हुए 1930-1934 के काल पर आकर अटक गई है।यह बहुत ख़तरनाक समय है जब काले अंग्रेजों ने देश के लोकतंत्र को तानाशाही के पदों तले रौंदना शुरू कर दिया है।
ऐसी विकट परिस्थितियों में प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन 20 से 22 अगस्त 2023 को जबलपुर में किया जा रहा है जो कि हरिशंकर परसाई को समर्पित होगा और इसे “ ठिठुरता हुआ गणतंत्र “ की संज्ञा दी गई है।अनूपपुर प्रगतिशील लेखक संघ इस राष्ट्रीय अधिवेशन को अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता है।
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