(हिमांशू बियानी/जिला ब्यूरो)
अनूपपुर (अंचलधारा) मुस्लिम समुदाय के लोगों ने शांतिपूर्ण तरीके से अनूपपुर में 19 अगस्त को 10 वीं मुहर्रम का त्योहार कोविड गाइडलाइन का पालन करते हुए
बस स्टैंड ताजिया कमिटी व , रजा ए मुस्तफा कमेटी द्वारा मनाया गया।रजा ए मुस्तफा कमेटी के सरपरस्त मो. लियाकत अली ने बताया कि कोरोना संक्रमण को देखते हुए शासन गाइडलाइन का पालन करते हुए मोहर्रम का त्यौहार मनाया गया जिसमे लोगो ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लंगर का इंतजाम किया गया था।मोहर्रम का पर्व मानने के पीछे बताया गया कि इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मुहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन की इसी मुहर्रम के महीने में कर्बला की जंग (680 ईसवी) में शहादत हुई थी। कर्बला की ये जंग हजरत इमाम हुसैन और बादशाह यजीद की सेना के बीच हुई थी। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार मुहर्रम के महीने में दसवें दिन ही इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने अपनी जान कुर्बान कर दी थी। इसे 'आशूरा' भी कहा जाता है इसीलिए मुहर्रम के दसवें दिन को बहुत खास माना जाता है। अनुपपुर शहर में 2 ताजिया बनाई गई थी जहाँ मस्जिद मोहल्ले की ताजिया कमिटी के अध्यक्ष मोहम्मद जावेद, मो.अमन अम्मू मो. इजहार,मो. हनी,मो अर्श, मो.अरशद ,मो. कैसर, मो.मिंटू,मो.रिजवान, मो चिंटू, मो जानू मोआशु ,मो अंशुल, मो इनायत शहीद पप्पू ने पूरे 10 दिनों तक विंभिन् व्यवस्थाएं की
बस स्टैंड ताजिया कमिटी व , रजा ए मुस्तफा कमेटी द्वारा मनाया गया।रजा ए मुस्तफा कमेटी के सरपरस्त मो. लियाकत अली ने बताया कि कोरोना संक्रमण को देखते हुए शासन गाइडलाइन का पालन करते हुए मोहर्रम का त्यौहार मनाया गया जिसमे लोगो ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लंगर का इंतजाम किया गया था।मोहर्रम का पर्व मानने के पीछे बताया गया कि इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मुहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन की इसी मुहर्रम के महीने में कर्बला की जंग (680 ईसवी) में शहादत हुई थी। कर्बला की ये जंग हजरत इमाम हुसैन और बादशाह यजीद की सेना के बीच हुई थी। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार मुहर्रम के महीने में दसवें दिन ही इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने अपनी जान कुर्बान कर दी थी। इसे 'आशूरा' भी कहा जाता है इसीलिए मुहर्रम के दसवें दिन को बहुत खास माना जाता है। अनुपपुर शहर में 2 ताजिया बनाई गई थी जहाँ मस्जिद मोहल्ले की ताजिया कमिटी के अध्यक्ष मोहम्मद जावेद, मो.अमन अम्मू मो. इजहार,मो. हनी,मो अर्श, मो.अरशद ,मो. कैसर, मो.मिंटू,मो.रिजवान, मो चिंटू, मो जानू मोआशु ,मो अंशुल, मो इनायत शहीद पप्पू ने पूरे 10 दिनों तक विंभिन् व्यवस्थाएं की
पढ़ी गई असुरे
कि नमाज
कि नमाज
लोग आज के दिन असुरे कि नमाज आदि किये, इस्लाम मजहब की मान्यता के अनुसार, कहा जाता है कि अशुरा के दिन इमाम हुसैन का कर्बला की लड़ाई में सिर कलम कर दिया था और उनकी याद में इस दिन जुलूस और ताजिया निकालने की रिवायत है। अशुरा के दिन रोजा-नमाज के साथ इस दिन ताजियों-अखाड़ों को दफन या ठंडा कर मातम मनाते हैं।
इस दिन मस्जिदों पर फजीलत और हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर विशेष
तकरीरें होती हैं। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, अशुरा को मोहम्मद हुसैन के नाती हुसैन की शहादत के दिन रूप में मनाया जाता है। इस पर्व को शिया और सुन्नी दोनों मुस्लिम समुदाय के लोग अपने-अपने तरीके से मनाते हैं।
इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मिलकर यजीद की फौज से डटकर सामना किया। हुसैन के काफिले में 72 लोग थे और यजीद के पास 8000 से अधिक सैनिक थे लेकिन फिर भी उन लोगों ने यजीद की फौज के समाने घुटने नहीं टेके। हालांकि वे इस युद्ध में जीत नहीं सके और सभी शहीद हो गए। किसी तरह हुसैन इस लड़ाई में बच गए। यह लड़ाई मुहर्रम 2 से 6 तक चली।
आखिरी दिन हुसैन ने अपने साथियों को कब्र में दफन किया मोहर्रम के दसवें दिन जब हुसैन नमाज अदा कर रहे थे, तब यजीद ने धोखे से उन्हें भी मरवा दिया। उस दिन से मुहर्रम को इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। ये शिया मुस्लिमों का अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने का एक तरीका है।
मोहर्रम के दस दिनों तक बांस, लकड़ी का
इस्तेमाल कर तरह-तरह से लोग इसे सजाते हैं और ग्यारहवें दिन इन्हें बाहर निकाला जाता है। लोग इन्हें सड़कों पर लेकर पूरे नगर में भ्रमण करते हैं सभी इस्लामिक लोग इसमें इकट्ठे होते हैं। इसके बाद इन्हें इमाम हुसैन की कब्र बनाकर दफनाया जाता है। लेकिन इस बार कोरोना गाइडलाइन की वजह से ताजिया के जुलूस को शहर में नहीं निकाला गया।
इस दिन मस्जिदों पर फजीलत और हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर विशेष
तकरीरें होती हैं। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, अशुरा को मोहम्मद हुसैन के नाती हुसैन की शहादत के दिन रूप में मनाया जाता है। इस पर्व को शिया और सुन्नी दोनों मुस्लिम समुदाय के लोग अपने-अपने तरीके से मनाते हैं।
इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मिलकर यजीद की फौज से डटकर सामना किया। हुसैन के काफिले में 72 लोग थे और यजीद के पास 8000 से अधिक सैनिक थे लेकिन फिर भी उन लोगों ने यजीद की फौज के समाने घुटने नहीं टेके। हालांकि वे इस युद्ध में जीत नहीं सके और सभी शहीद हो गए। किसी तरह हुसैन इस लड़ाई में बच गए। यह लड़ाई मुहर्रम 2 से 6 तक चली।
आखिरी दिन हुसैन ने अपने साथियों को कब्र में दफन किया मोहर्रम के दसवें दिन जब हुसैन नमाज अदा कर रहे थे, तब यजीद ने धोखे से उन्हें भी मरवा दिया। उस दिन से मुहर्रम को इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। ये शिया मुस्लिमों का अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने का एक तरीका है।
मोहर्रम के दस दिनों तक बांस, लकड़ी का
इस्तेमाल कर तरह-तरह से लोग इसे सजाते हैं और ग्यारहवें दिन इन्हें बाहर निकाला जाता है। लोग इन्हें सड़कों पर लेकर पूरे नगर में भ्रमण करते हैं सभी इस्लामिक लोग इसमें इकट्ठे होते हैं। इसके बाद इन्हें इमाम हुसैन की कब्र बनाकर दफनाया जाता है। लेकिन इस बार कोरोना गाइडलाइन की वजह से ताजिया के जुलूस को शहर में नहीं निकाला गया।
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