Anchadhara

अंचलधारा
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घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं... मतदाता -- नेता की जटिल केमिस्ट्री में उलझा लोकतंत्र


                           (मनोज द्विवेदी,अनूपपुर)
अनूपपुर (अंचलधारा) भारतीय लोकतंत्र १९४७ के बाद निरंतर उठाए गये मजबूती के तमाम कदमों के बावजूद सिस्टम , नेता, मतदाता की जटिल केमिस्ट्री मे उलझ कर रह गया है। यह जटिलता आपसी अविश्वास की हद तक जा पहुंचने के कारण देश को भीडतंत्र का गुलाम बना रहा है। कहने को विधायिका,न्यायपालिका, कार्यपालिका जैसे मजबूत तंत्र के साथ मीडिया जैसे चॊथे तंत्र की उपस्थिति जनता मे विश्वास बनाए रखता है। लेकिन स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था मे जब तक सभी तबके की जवाबदेही तय नही होती, जब तक अधिकार - कर्तव्य का समन्वय स्थापित नही होता तब तक समानता की कल्पना करना बेमानी है। वर्तमान परिवेश मे राजनेता समाज मे मजाक या गाली का पर्याय बन कर रह गया है। राजनेता या जनप्रतिनिधि महत्वपूर्ण कार्य करते हुए भी हेय हो गये। पढा लिखा वर्ग हो या अनपढ तबका ,हर वर्ग के लिये अपरिहार्य होने के बावजूद नेता स्वीकार्य इसलिये नही है कि सार्वजनिक रुप से इनका आचरण अनुकरणीय नही रहा। नेता ,नेतृत्व का पर्याय कभी नही बन सका। जनता के कन्धो पर सवार यह वर्ग अपनी सम्पन्नता बढाता रहा।कुछ लोगों के निम्नतर आचरण ने राजनीति को अपरिहार्य बीमारी सा बना दिया।
सरकार बनाने के लिये चुनाव जीतने की अनिवार्यता ने लोकतंत्र मे मतदाता को अन्तिम महत्वपूर्ण शक्ति बना दिया । वोट के लिये जो जनकल्याणकारी कार्य एवं सतत समाजसेवा किये जाने चाहिये उसकी जगह  राजनैतिक दलों ,नेताओं को कर्मठ न बनाकर मौकापरस्त बना दिया। येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने की बहुत सी कलाएं विकसित हुईं। जाति,भाषा ,धर्म,प्रान्त को मुद्दा बनाया गया। योग्यता की जगह बाहुबल,धनबल ने लिया तो लोकतंत्र कब भीडतंत्र मे बदल गया पता ही नहीं चला।
चुनाव लडने मे धनबल - जनबल की स्वीकार्यता निर्वाचन आयोग भी देता है। वायदों को पूरा करने अनिवार्यता न होने से राजनीतिक दलों की जनता के प्रति जवाबदेही तय नही होती ।जिसके कारण पांच साल वे पलट कर जनता के पास नही जाते। मतदाता भी चुनाव को उत्सव की तरह लेता है,जिसमें भरपूर मनोरंजन, पैसा, शक्तिप्रदर्शन होता है। निर्वाचन पैसा, बाहुबल , साधन संपन्नता का गेम होने के कारण कबड्डी जैसा हो गया है। जिसमे टांग खिंचाई मे कुशलता ही सफलता का पैमाना है।
ऐसी दशा मे भीड को पालना, उनकी मनमानी सहना अराजकता की खुली छूट देता है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ भीड पर किसी का नियंत्रण नहीं । अफवाह पर भीड हिंसक हो जाती है। लूट,आगजनी,तोडफोड,बलात्कार तक होता है। भीड का कोई चेहरा नही होता कहकर कोई कडी कार्यवाही नही होती।
बलात्कार, आगजनी,लूट,हत्या,तोडफोड के सिद्ध मामलों मे आरोपियों को मताधिकार से वंचित करना होगा। जब यह होगा तो कोई दल,कोई नेता इन्हे प्रश्रय नही देगा। तब नियम कायदों के साथ लोग समाज के प्रति जिम्मेदारी समझेगें।
पूरे समय हो मतदान-- वर्तमान मे पांच साल मे एकबार मतदान की व्यवस्था है। क्या ऐसा हो सकता है कि नगरपालिका, विधानसभा, लोकसभा के लिये पांच साल के लिये इच्छुक प्रत्याशियों के नामांकन उपरान्त जनता पूरे चार साल छ: माह तक एसडीएम / कलेक्ट्रेट कार्यालय मे कभी भी एकबार मतदान करे। प्रत्याशी को किसी प्रकार के प्रचार - प्रसार ,जनसभा,पोस्टर- पंपलेट की अनुमति न हो। ऐसा करना अयोग्यता की श्रेणी मे माना जाए। तब प्रत्याशी का कार्य व्यवहार,उसका आचरण ही उसकी पहचान होगा। मतगणना उपरांत सर्वाधिक मत पाने वाला विजयी घोषित हो। तब लोग कार्य करेगें,बकवास नहीं ।
विचार करें कि जब पांच साल मतदान की व्यवस्था होगी तो निर्वाचन एक आम प्रक्रिया होगी। तब निर्वाचन के नाम पर न आचार संहिता के नाम पर विकास कार्य बन्द होंगे,  न ही प्रशासन- शासन ठप्प होगा। चुनाव के नाम पर न समय बर्बाद होगा , न ही धन। तब जनप्रतिनिधि- मतदाता सभी की जवाबदेही तय होगी। नेता - जनता चुनाव के समय एक दूसरे को झेलने के बाध्य नही होगे। तब पूरे पांच साल नेता समाजसेवी की तरह जनता के बीच होगा ।
किसी लोकप्रिय हिन्दी फिल्म का यह गाना " घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं " न जनता पर लागू होगा , न ही विधायिका- कार्यपालिका- न्यायपालिका पर। जब सबकी बराबर जवाबदेही तय होगी तब स्वस्थ लोकतंत्र उक्त तीन पायों के साथ मीडिया व आमजनता रुपी  पांच मजबूत पायों के साथ अपेक्षाकृत अधिक मजबूत होगा।
                                                                                                                    अनूपपुर ब्यूरो / हिमांशु बियानी

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