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मुंशी प्रेमचंदजी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता-कुलपति

 

इंगांराजजावि. में मुंशी
 प्रेमचंद जी की 141वीं जयंती संपन्न
   (हिमांशू बियानी/जिला ब्यूरो)  
अनूपपुर (अंचलधारा) आज हमारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, ऐसे में कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद जी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। उक्त आशय के विचार इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय में मुंशी प्रेमचंद जी की 141 वी जयंती पर कुलपति श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी ने व्यक्त किए।  उन्होंने कहा कि कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद न सिर्फ विश्वस्तरीय साहित्यकार थे, बल्कि गांधी और सत्याग्रह से प्रभावित होकर स्वतंत्रता सेनानी भी थे। उनके इस रूप की बहुत कम चर्चा होती है। उन्होंने न सिर्फ अच्छी खासी सरकारी नौकरी छोड़ी थी बल्कि कलम के अलावा भौतिक रूप से भी सत्याग्रह तथा स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। गोदान और कर्मभूमि जैसे अमर साहित्य के रचयिता मुंशी प्रेमचंद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। देश की आजादी में उनका और उनकी लेखनी का अहम योगदान है। 
प्रेमचंद जी अपने कार्यो को लेकर, बचपन से ही सक्रीय थे। बहुत कठिनाईयों के बावजूद भी उन्होंने, आखरी समय तक हार नही मानी, और अंतिम क्षण तक कुछ ना कुछ करते रहे। हिन्दी ही नही उर्दू मे भी, अपनी अमूल्य लेखनी छोड़ कर गये। प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के लमही गांव में हुआ था। प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य के खजाने को लगभग एक दर्जन उपन्यास और करीब 250 लघु-कथाओं से भरा है। प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद ने पहला उपन्यास उर्दू में लिखा था। उन्होंने 'सोज-ए-वतन' नाम की कहानी संग्रह भी छापी थी जो काफी लोकप्रिय हुई। उनके दादाजी गुर सहाय राय एक पटवारी थे और पिता अजायब राय एक पोस्ट मास्टर थे। बचपन से ही उनका जीवन बहुत ही, संघर्षो से गुजरा था। जब प्रेमचंद जी महज आठ वर्ष की उम्र के थे तब उनकी माता जी का देहांत हो गया था। सरकारी नौकरी के चलते, पिताजी का तबादला गौरखपुर हुआ और कुछ समय बाद पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया जिसका प्रेमचंद जी के बचपन पर बुरा प्रभाव पड़ा।
प्रेमचंद जी लमही गाँव छोड़ देने के बाद, कम से कम चार साल कानपुर मे रहे, और वही पर उनकी एक पत्रिका के संपादक से मुलाकात हुई, जिसमें उनके कई लेख और कहानियों का प्रकाशन हुआ। इस बीच आपने स्वतंत्रता आदोलन के लिये भी कई कविताएँ लिखी जो कि समय की मांग थी।
धीरे-धीरे उनकी कहानियों,कविताओं, लेख आदि को लोगो की तरफ से, बहुत सरहाना मिलने लगी। जिसके चलते उनकी पदोन्नति हुई, और गौरखपुर तबादला हो गया। यहाँ भी लगातार एक के बाद एक प्रकाशन आते रहे, इस बीच उन्होंने महात्मा गाँधी के आदोलनो मे भी, उनका साथ देकर अपनी सक्रीय भागीदारी रखी। उनके कुछ उपन्यास हिन्दी मे तो, कुछ उर्दू मे प्रकाशित हुए।
उन्नीस सौ इक्कीस मे उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया और अपनी रूचि के अनुसार लेखन पर ध्यान दिया। एक समय के बाद अपनी लेखन रूचि मे, नया बदलाव लाने के लिये उन्होंने सिनेमा जगत मे, अपनी किस्मत अजमाने पर जोर दिया, और वह मुंबई पहुच गये और, कुछ फिल्मो की स्क्रिप्ट भी लिखी परन्तु उस समय उनकी लेखनी को फ़िल्म जगत ने नकार दिया। आख़िरकार उन्होंने मुंबई छोड़ने का निर्णय लिया और पुनः बनारस आगये। इस तरह जीवन मे, हर एक प्रयास और मेहनत कर उन्होंने आखरी साँस तक प्रयत्न किये।
हिन्दी, बहुत खुबसूरत भाषाओं मे से एक है। हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो, हर किसी को अपना लेती है अर्थात् सरल के लिये बहुत सरल और कठिन के लिये बहुत कठिन बन जाती है। मुंशी प्रेमचंद जी ने हिन्दी को हर दिन,एक नया रूप, एक नई पहचान दी है। मुंशी प्रेमचंद जी  एक ऐसी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे। जिन्होंने हिन्दी विषय की काया पलट दी। आप एक ऐसे लेखक थे जो, समय के साथ बदलते गये और हिन्दी साहित्य को आधुनिक रूप प्रदान करते गए। मुंशी प्रेमचंद जी ने सरल सहज हिन्दी को, ऐसा साहित्य प्रदान किया जिसे लोग, कभी नही भूल सकते। बड़ी कठिन परिस्थियों का सामना करते हुए, अपने आप को भूलकर हिन्दी को प्राथमिकता प्रदान की। मुंशी प्रेमचंद हिन्दी के लेखक ही नही बल्कि, एक महान साहित्यकार, नाटककार, उपन्यासकार जैसी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। 
इस अवसर पर एक कार्यक्रम विश्विद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें कार्यक्रम की शुरुआत प्रेम चंद जी के  छाया चित्र पर माल्यार्पण से हुआ। विभाग की वरिष्ठ आचार्या प्रो.रेनू सिंह ने अपनी कविता के माध्यम से खुद को पहचानने और समय-समाज की चुनौतियों को रेखांकित करते हुए प्रेम चंद की समकालीन प्रासंगिकता पर अपनी बात रखते हुए विषय का प्रवर्तन किया। अपनी बात रखते हुए प्रो.रेनू सिंह ने प्रेम चंद की भारतीय समाज और सामाजिकता की दृष्टि पर विस्तार से प्रकाश डाला। मुख्य रूप से यह कार्यक्रम विभाग के शोध-छात्रों के बीच प्रेम चंद के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर एक संवाद था प्रेम चंद को लेकर हर किसी की अपनी दृष्टि होती है, इसी दृष्टि का विस्तार करने के लिए इस विषय का चयन किया गया था। शोध-छात्रों की ओर से विभाग के वरिष्ठ शोध-छात्र ज्ञान चन्द्र पाल ने प्रेम चंद की विभिन्न कहानियों के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता के दौर में स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित किया । लक्ष्मी गोंड ने प्रेम चंद के जीवन संघर्ष पर प्रकाश डाला। नए शोध-छात्रों में देवानन्द राजू यादव ने प्रेम चंद पर अपनी बात रखते हुए भारतीय किसानों की समस्या पर गहराई से प्रकाश डाला, चंचल सिंह ने प्रेम चंद पर अपनी बात रखते हुए शोषक और शोषित वर्ग की विसंगतियों पर प्रकाश डाला, चित्रार्धिनी पटेल ने एक कविता के माध्यम से प्रेम चंद के जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला, पूजा यादव ने प्रेम चंद के उपन्यास और कहानियों के माध्यम से प्रेम चंद के बहुविध लेखन दृष्टि पर प्रकाश डाला, तेज प्रताप यादव ने प्रेम चंद की लेखकीय और सम्पादकीय भूमिकाओं पर प्रकाश डालते हुए किसान और मजदूर की तत्कालीन चुनौतियों पर प्रकाश डाला, धर्मेन्द्र यादव  ने बताया कि प्रेम चंद कैसे भारतीय समाज के हर वर्ग और हर समाज की चेतना में समाहित हैं, इस बहाने धर्म-साम्प्रिदायिकता और किसान जीवन पर प्रकाश डाला।
इस कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन विभाग के डॉ प्रवीन कुमार ने किया, कार्यक्रम का सञ्चालन डॉ पूनम पाण्डेय ने किया विभाग के अन्य सदस्य डॉ जितेन्द्र कुमार सिंह, डॉ वीरेन्द्र प्रताप, विभागीय सहायक विकास मोगरे के साथ ही शोध-छात्रों की उपस्थिति रही |
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्विद्यालय के माननीय कुलपति प्रोफेसर श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी जी ने आशीष वचन दिए कि “मुझे विश्वास है, कि आजादी के इस अमृत महोत्सव में मुंशी प्रेमचंद जी के साहित्य की सिर्फ चर्चा ही नही होगी बल्की उस पर पूरा देश विशेषकर विद्यार्थी अमल करेंगे”।

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